swyam ki khoj
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स्वयं की ख़ोज

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हैलो दोस्तों,

पता है अपनी प्रार्थनाओं में खुद के लिए मांगते-मांगते पता ही नहीं चला की कब मैं आंखें होते हुए भी अंधा हो गया। कब वैसी चीज़ें भी मांगने लग गया, जिसे प्रकृति ने मुझे पहले से ही दे रखा है। बस उसका यूज़ करने की जरुरत है। लेकिन कोई क्या ही करे, जब “याचिका करना” एक आदत बन जाए, फिर इंसान धीरे-धीरे कामचोर बनने लग जाता है और फिर उसकी हर एक मांग उसके कामचोरियों की कहानियाँ कहती नज़र आतीं हैं। फिर उसे कच्चा आलू, चावल नहीं चाहिए होता, बल्कि पका-पकाया भोजन चाहिए होता है। मशीन नहीं चाहिए होता, अपितु बना-बनाया कंप्लीट प्रोडक्ट चाहिए होता है।

क्या आपको भी ऐसा कभी लगा है? क्या आपने भी कभी अपनी प्रार्थनाओं पर गंभीरता से विचार किया है? कभी सोचा है कि मैं जो मांग रहा हूं, आखिर क्या मांग रहा हूं, किससे मांग रहा हूं, और क्यों ही मांग रहा हूं? जिस प्रकृति ने आपको स्वयं ही अमूल्य संपदा से फ्री में नवाज रखा है, आप जरा गौर से कभी सोचिए तो सही कि आखिर आप उनसे क्या ही मांग रहे हैं? यह तो बिल्कुल ऐसा ही है की सुपर कंप्यूटर आपके पास ही है, लेकिन आपको कैलकुलेटर की कमी खल रही है, जो आपसे, आपके आगे बढ़ने के सम्पूर्ण अवसर को छीन ले रही है।

आज हम हर उन छोटी-छोटी बाह्य भौतिक वस्तुओं को सफलता प्राप्ति के टूल्स मान चुके हैं, जिनके बिना हमारी नजर में सफलता संभव ही नहीं। लेकिन क्या ये सच है?

खुद ही सोच कर देखिए जरा कि आखिर इस पूरे मानवीय विश्व में सबसे ज्यादा पावरफुल क्या है?

पैसा?

पावर?

पहुंच?

या कुछ और, सोचिए।

 

इनमें से कुछ भी नहीं।

सोच में पड़ गए क्या? लेकिन यही सच है।

 

इस दुनिया की सबसे ताकतवर, सबसे पावरफुल चीज है- “विचार” “आइडिया”। जिसकी क्षमता को आज भी मात्र 1 से 2% लोग ही सही से समझ पाए हैं।

अब आप सोचेंगे, ऐसा भी क्या है? तो जरा खुद ही सोचिए-

  • “आग” के प्रारंभिक पाषाणिक ज्ञान को आखिर कौन “नियंत्रित रूप में” घर के भीतर लेकर आया, जिस पर आप रोजाना खाना बनाते हैं?
  • इतने सारे भोजन के टेस्ट्स को आखिर कौन आपकी थाली तक लेकर आया? फूलों से खुशबू लिया, जड़ों से विटामिन्स, पत्तों से फूड कलर; आखिर किसने?
  • आप जिन कपड़ों को रोजाना पहनते हैं, क्या वे हू-ब-हू प्रकृति में कहीं उपलब्ध थे? नहीं न, फिर आखिर किसने उन रॉ मैटेरियल्स की प्रकृति को समझा, उनके गुणों को समझा, और फिर उसे आपके वस्त्र का रूप दिया।
  • आखिर इतने बड़े-बड़े भव्य, विशाल इमारत, महल कैसे निर्मित हुए? और कैसे ये सदियों से हू-ब-हू टिके हुए हैं? क्या आपको लगता है कि बिना प्रकृति के नियमों को जाने, “सेंटर ऑफ मास” के साइंस को बिना समझे, ऐसा करना संभव था/है?
  • आखिर जिस कैलकुलेटर, मोबाइल, कंप्यूटर पर आज हमारा दिमाग निर्भर हो गया है, इसे ही जबरदस्त पावरफुल मान चुका है, कभी सोचा है कि इसे बनाया किसने है?

क्या भगवान ने? नहीं, हम-आप जैसे ही किसी इंसान ने।

फिर जरा खुद ही सोचिए इसे खुद से, खुद की क्षमताओं से, भी ज्यादा ताकतवर मानना, क्या खुद की तौहीन करने जैसा नहीं है?

आज हम रोजाना जिन भी चीजों को पहन रहे हैं, यूज़ कर रहे हैं, हाथों में लेकर घूमने से खुद को स्पेशल महसूस कर रहे हैं; आफ्टर ऑल ये सब प्रोडक्ट ही तो हैं, इंसानी दिमाग के। कुछ ऐसे लोगों के, जिन्होंने आपकी ज़रूरतों को समझा, और फिर उनके जागृत दिमाग ने उसे हर वो रास्ता सुझाया, जो एक “आइडिया” को “मटेरियल फॉर्म” में कन्वर्ट करने के लिए जरूरी था।

जिस प्रकार प्रकृति में सब कुछ अपने “रॉ फॉर्म” में विद्यमान है; उसे, उसकी प्रकृति-गुण-उपयोग, उसके साइंस को समझने की बस जरूरत है। फिर आप उनका सर्वोत्तम उपयोग कर पाने में सक्षम हो जाते हैं।

मिट्टी से बने ईंट, चट्टानों से बने कंक्रीट, बालू, सीमेंट आदि के मिश्रण के साइंस को समझ कर, सेंटर ऑफ मास के साइंस को समझकर ही सोचिए ना किस तरह आपने पिलर और बीम के सहारे 30-40-70 मंजिली इमारतें खड़े कर दिए हैं।

ठीक उसी प्रकार, इन सभी से कहीं ज्यादा हाईटेक, कहीं ज्यादा एडवांस्ड मशीन आप सभी के पास पड़ी हुई है, बिल्कुल उस “जिन्न के चिराग की तरह”। जिसे आप-हम हर दिन साथ ढो तो रहे हैं, लेकिन आंतरिक उथल-पुथल और बाहरी दुनिया की आपा-धापी में कभी फुर्सत से बैठकर उसे साफ करने की, रगड़ने की ज़हमत ही नहीं उठाई।

और दुर्भाग्य उस शक्तिशाली जिन्न का, जो चिराग से बाहर कभी आ ही नहीं पाया। चिराग के भीतर ही कैद महासागर की अनंत गहराइयों में समा गया।

आप खुद ही सोचिए ना कि आखिर एक बीज के लिए उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है? यही ना कि उसके पास आसमान चूमने की अनंत संभावनाएं व्याप्त थीं, लेकिन वह धरती के भीतर के तात्कालिक अंधकार से इतना घबराया था, कि उसने प्रस्फुटित  होने की हिम्मत तक नहीं दिखाई। अपने ही बनाए डर से, खुद को ही हरा दिया। विकसित होने की अनंत संभावनाओं का खुद के हाथों ही क़त्ल कर डाला।

जब आपका जन्म ही ऊंचाईयों को छूने के लिए हुआ है, फिर खुद को किसी अन्य से कमतर क्यों समझना? आपकी नियति अलग है, उनकी नियति अलग। आपकी ऊंचाई अलग है, उनकी ऊंचाई अलग। आपकी यात्रा अलग है, उनकी यात्रा अलग। हां, ये संभव है कि वे “खुद को पाने की अपनी इस यात्रा में” आपसे कुछ आगे हो सकते हैं; लेकिन इसे समझना होगा कि ये उनकी यात्रा है, आपकी नहीं। खुद को जानने की आपकी यात्रा बिल्कुल ही भिन्न होने वाली है, क्योंकि हम सभी के प्रारंभ बिंदु ही भिन्न भिन्न हैं। इसलिए किसी से कोई रेस नहीं है। यहाँ उद्देश्य केवल इतना है कि मरने से पहले हम अपना, अपनी प्रज्ञा का सम्पूर्ण विकास कर पाएँ और उस अनंत को पहचान पाएं जो हमारे भीतर ही विद्यमान है। प्रकृति ने आप में, हम में, हम सभी में, अद्भुत सृजनात्मक क्षमताएं दी हैं। आवश्यकता है, तो बस “कभी ना ढूंढी गई इन क्षमताओं को” “शिद्दत से ढूंढने की”।

शिद्दत से ढूंढने को इसलिए कहा, क्योंकि इनके ऊपर आज “कई सारी परतें” समय के साथ जमती चली गई हैं और यह दबते-दबते काफी गहरे तक पहुंच गई है।

इन “परतों” से मेरा तात्पर्य उन भ्रांतियों से है, जिसने आज खुद की क्षमताओं को स्वयं की नजरों में सीमित बना दिया है। उदाहरण के लिए, यदि अभी आपको 10 लोगों के नंबर याद करने को कह दिया जाए, तो आप नहीं कर पाएंगे। आपका दिमाग भी खुद ही कहेगा कि यह मुझे नहीं होगा और यह करवा भी क्यों रहे हो जब तुम्हारे पास फोन है ही। इधर दिमाग ने विकल्प सुझाया, आप सहमत हुए नहीं, कि  दिमाग ने अपनी चलानी शुरू कर दी, कामचोरी शुरू कर दी। क्योंकि आप खुद ही सोचिए ना आज से 25-30 साल पहले जब फोन नहीं था, तब आप खुद 20-20 नंबर कैसे याद रख लिया करते थे? आज आलम ये है कि हमने दिमाग का यूज़ करना कमोबेश बंद ही कर दिया है, मगर फिर भी खुद को समझदार भी बताते हैं। अरे भई, बस इतना समझाइये- जब मशीन चली ही नहीं, तो समझदारी का प्रोडक्ट तैयार कैसे हो गया?

हक़ीक़त यही है कि इंसानी दिमाग आज केवल यूज़ करने की मशीन बन कर रह गया है। कुछ ही प्रतिशत लोग आज इसका वैसा उपयोग कर पा रहे हैं, जिस लिये इसे बनाया गया था। और वो ही कुछ लोग इस जानने की क्रमिक प्रक्रिया में स्वयं को आसमान की ऊंचाइयों तक ले जा पा रहे हैं।

खैर, हम सबों के वास्तविक अस्तित्व के ऊपर भ्रांतियों की अब जितनी ज़्यादा परतें जम चुकी हैं, कि अब इन्हें निकालना पृथ्वी की गहराइयों में कहीं दबे हीरे को निकालने जैसा होगा; जिसमें थोड़ी-मोड़ी नहीं, बहुत ही ज्यादा मेहनत की जरूरत होगी। डेली कुदाल से मिट्टी हटाने की जरूरत होगी। तब तक, जब तक कि हीरा मिल ना जाए। बीच में यदि थक गए, तो भी मेहनत व्यर्थ। और यदि कुछ दिन आराम करने की सोच ली, तो भी मेहनत व्यर्थ। क्योंकि, “प्रभु” अपने कुदाल चलाना रोका है, मिट्टी का भरना तो अनवरत चल ही रहा है न।

इसलिए अपने सुपर-कंप्यूटर की क्षमताओं को यदि जानना है, तो कुदाल उठाइए और मिट्टी हटाना शुरू कर दीजिए। बस खुद से प्रण कीजिए कि इसे तब तक जारी रखेंगे जब तक कि हीरा मिल ना जाए।

धन्यवाद।

 

1 Comment

  1. Shivjyoti

    October 9, 2023

    Padhte padhte har line me yahi laga jaise mere liye hi likha gya ho… Qki sach to yahi hai sabki….
    Swayam ki khoj sabse badi khoj hai…..

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