adhoora sach
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अधूरा सच

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प्रिय दोस्तों,

अच्छा चलिए, एक बात बताइए – क्या आपने कभी ऐसा महसूस किया है कि आज मौसम भी बेहतरीन है, सब कुछ भी ठीक है, लेकिन फिर दिमाग के अंदर न जाने क्यों इतने सारे अनगिनत तारों का क्रॉस-कनेक्शन क्यों चल रहा है?, मन अस्थिर सा क्यों लग रहा है? कभी बेचैन हो रहा है, तो कभी परेशान; कभी डर रहा है, तो कभी गुस्सा कर रहा है; बिल्कुल ही बेतुकी बातों पर। ऐसी बातों पर जो यूं तो निरर्थक हैं, बेबुनियाद हैं, लेकिन ऐसी मनोदशा (बेचैनी, परेशानी, डर, गुस्सा आदि) में ये रावण के 10 सिर की भांति सार्थक बनकर उभरने लग जाते हैं। न जाने क्यों? पर इन 10 सिरों का असर जब धीरे-धीरे कम होने लगता है, तब वास्तव में पता चलता है कि इस 10 सिर वाले आपके भीतर के रावण ने आखिर स्वयं खुद के लंका की कितनी बैंड बजाई है?

वैसे यह तो सच है कि हम सभी, कभी-ना-कभी, ऐसा महसूस जरूर करते हैं और यह भी जानते हैं की ऐसे इमोशंस स्वयं खुद की ही क्षति करते हैं। ऐसी मनोदशा की स्थिति में व्यक्ति की समझ-क्षमता, विश्लेषण-क्षमता, के ऊपर एक pseudo layer निर्मित हो जाता है, जिसके प्रभाव में आप आवेशित होकर बैक-टू-बैक ऐसे काम या निर्णय करने लग जाते हैं, जो स्थिर मन की दशा में तो आप कभी ना करते। बिल्कुल ऐसा ही रिएक्शन हम तब भी करते हैं, जब हम इमोशंस के दूसरे एक्सट्रीम वैल्यू प्रेम-मोह-माया-दया-भक्ति इन सभी के अतिशय प्रभाव में होते हैं। और यही है इमोशंस के पीछे का विज्ञान।

90 से 95% लोग इन इमोशंस के या तो “इस छोर” या फिर “उस छोर” में अपनी पूरी जिंदगी काट देते हैं। और ऐसे में अनवरत एक अंतर्द्वंद से जूझते रहते हैं। क्योंकि 2-4% को छोड़ दिया जाए, तो लगभग पूरी दुनिया ही (हमारे आसपास की) इन पलड़ों के या तो “इस पार” या फिर “उस पार” जीती दिखाई देती है। और इसलिए व्यक्ति का मन-ज्ञान इसे ही “सामान्य मानवीय जीवन स्थिति” मानने को सहमत हो जाता है। और उसके बाद स्वयं भी इस दो में से एक रास्ते पर भेड़ के झुंड में साथ होकर चल निकलता है, वह ढूंढने जो उस रास्ते पर चल रहे उन 95-96% लोगों को, उनके पूर्वजों तक को कभी ना मिला। ऐसे में इंसान बस यह झूठा विश्वास मन को दिलाता रहता है कि “ये नहीं करता तो क्या ही करता”? आखिर यही तो सही है, जिसे बचपन से हमने देखा भी है और जिसे 95% लोग जी भी रहे हैं। और धीरे-धीरे अपने विचारों को लेकर वो और सख्त होने लग जाता है। अब क्योंकि झुंड में हर कोई तो अपनी अलग पहचान बना पाएगा नहीं, और फिर वही होगा, ऐसे ही इमोशंस और गहराएंगे, वह pseudo लेयर और गहराएगा, और आपकी सोचने-समझने, विचार करने, तर्क करने की क्षमता पर हावी होता ही चला जाएगा और फिर पूरी जिंदगी आपको इसी चश्मे से देखने की आदत सी हो जाएगी। फिर दुनिया के और कोई भी रंग ना तो दिखाई देंगे और ना ही समझ में आएंगे। और यदि दिखे भी तो आपका दिमाग उसे उस प्रकार प्रोसेस करेगा ही नहीं और पूरी जिंदगी इस एक रंग को हकीकत मानते हुए निकल जाएगी।

मैं यह नहीं कहता कि आप जो कुछ भी सोचते हैं, जैसा भी सोचते हैं, हकीकत/ सच नहीं है; है, लेकिन आपका, और वह भी आधा। या फिर यूं कहूं कि समंदर में एक बूंद पानी जितना ही है आपका सच, आपका हकीकत।

कारण बस इतना है कि आप ना चाहते हुए भी किसी एक, दो या चार रंग के गिरफ्त में आ गए और इन चश्मों की आपको कभी चाहते हुए (जब पैसे मिलने लगे, लग्जरी मिलने लगे, समाज में रिस्पेक्ट मिलने लगे, तब…), तो कभी ना चाहते हुए, ऐसी आदत पड़ी कि आप सोते-जागते, खाते-पीते हर समय उस चश्मे को पहन कर ही रखते हैं। यही कारण है कि हर घटना, हर परिस्थिति को आप इस तरीके के सेट पैटर्न पर जज कर रहे होते हैं। हालांकि आपका कुछ विश्लेषण बहुत ही महीन, बहुत ही गहरा और अच्छा भी होता है। लेकिन बावजूद इसके मैं फिर भी यही कहूंगा कि यह केवल आपका सच है, अधूरा सच है; और यह सब का सच तो कत्तई ही नहीं हो सकता है।

इसलिए कहा जाता है कि कुछ चीजों को छोड़कर शाश्वत जैसा कुछ भी नहीं होता। और यदि आप यह समझ लें, तो शायद दूसरों के साथ और स्वयं के साथ होने वाले अंतर्द्वंद से भी मुक्ति पा लें। इसी स्थिति को तो शास्त्रों में “आनंद” व “मोक्ष प्राप्ति” के यात्रा की महत्त्वपूर्ण स्थिति बताई गई है। जिसे महावीर भी “स्यादवाद” के अपने विचार के माध्यम से साधने का रास्ता बताते हैं। यही वह मार्ग है जहां समय के साथ “मैं ही सच हूं” विलीन हो जाता है, और आपका जीवन फिजूल की छोटी-मोटी बातों से ऊपर उठकर नई ऊंचाइयों को, नए आयाम को तलाशने के लिए तैयार होता है।

सच कहूं तो मेरे नजर में कोई भी इमोशन न तो खराब है, न ही अच्छा। क्यूंकि हर एक इमोशंस की, हर एक की जिंदगी में अपनी अलग-अलग कहानी है। कभी-कभी गुस्सा, फिक्र, बेचैनी भी सही है; और कभी-कभी प्रेम, मोह, माया भी। आखिरकार जब आप-हम, इंसानों के बीच एक समाज में रह रहे हैं, तो ये  इमोशंस ही तो आपके अभिव्यक्ति के वो माध्यम हैं, जिन्हें कभी-कभी आप चाह कर भी उपयुक्त शब्द नहीं दे पाते। ऐसे समय में शब्दों से ज्यादा मौन ही श्रेयस्कर लगता है।

सोचकर देखिये यदि किसी से आपकी बहुत ज्यादा खुलकर बातें होती हैं, वाद-विवाद किसी भी मुद्दे पर होता रहता है, सहमति- असहमति बनी रहती है; वैसे में उस व्यक्ति पर वैसा एक्सट्रीम क्रोध, गुस्सा आपके मन में कभी पनपेगा ही नहीं। क्योंकि गुस्से  का प्रमुख कारण ही है- संवादहीनता/ बातों का ना हो पाना।

जिन बातों को सामने वाले तक पहुंचना चाहिए, जब वो बातें मन के भीतर चलने लग जाएँ, वैसे में उत्पन्न यह गुस्सा, यह नाराजगी, कुछ और नहीं, बस आपके अटेंशन व आपके समय को चाह रही होती है। आपने समय दिया नहीं, कि मन पुनः पहले जैसा निर्मल हो जाएगा।

इस भाग-दौड़ की दुनिया में हर कोई “अपना सच” बताना चाहता है। करीबी होंगे, तो आप पर थोपना चाहेंगे। थोड़े समझदार टाइप होंगे, तो आपको अपने तर्कों से कन्विंस करने की कोशिश करेंगे। बस इतना ही कहूंगा कि सुन लीजिएगा। उन्हें भी समझने की कोशिश एक बार कर लीजिएगा। मानिए, ना मानिए, फिर आपकी मर्जी। हां, एक फायदा जरूर होगा इससे, उस रंग के भी सच से आप रूबरू हो सकेंगे; वो भी बिना उस चश्मे को पहने।

धन्यवाद।

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