आत्ममंथन
नमस्कार दोस्तों,
सपने तो बहुत देखे होंगे आपने अब तक। न जाने कितने नए आइडियाज दिमाग में आए भी होंगे और गए भी होंगे। और उनमें से कुछ ही कॉपी के पन्नों में कहीं अपनी जगह बना पाए होंगे। और वो भी इसलिए नहीं कि वे धांसू थे, बल्कि इसलिए क्योंकि संभवतः उस दिन आप खुद के साथ किसी और ही दुनिया में रहे होंगे। कभी थोड़ा मोटिवेटेड, तो कभी अपने ही फ्यूचर प्रोजेक्शन्स (future projections) से डरे हुए। और ऐसा होना बहुत ही सामान्य है। कोई भी चीज, आइडिया अपने कंक्रीट फार्म में दो ही कारणों से आ सकती है – पहला कि या तो उसमें निहित फायदों को आप देख पा रहे हों; वह आपको मोटिवेट कर पा रही हो; औरों से आगे निकलने, अपने अधूरे सपनों को पूरा करने का एक रास्ता दिखा पा रही हो; या फिर दूसरा कि ऐसा करना आपकी चॉइस न हो, बल्कि कंपल्शन (compulsion) हो।
दरअसल काम तो ऐसे ही होता है। आप चाहे नौकरी में हों, या खुद के बिजनेस में; कोई भी काम किसी भी इंसान के लिए कई phases लेकर आता है। अक्सर जो काम शुरुआत में कठिन व मुश्किल नजर आता है, समय के साथ वही काम आपकी जिंदगी को सरलता की ओर ले जाता है। और जो काम आसान होता है, अक्सर समय के साथ उसे करना व निभा पाना उतना ही कठिन होता चला जाता है। उदाहरण के लिए, अपना बिजनेस स्टार्ट करना, जरा सोच कर देखिए – the level of complexities. बिजनेस को deeply समझना, उसके प्रेजेंट एंड फ्यूचर प्रोस्पेक्ट्स को समझना, इन्वेस्टमेंट जुगाड़ना, फंडिंग रेज करना, गवर्नमेंट बेनिफिट्स लेना (छूट, सब्सिडी, PLI,…), कंपनी रजिस्टर करना, टैक्सेशन, कंप्लायंस, प्रोडक्ट मेकिंग, रिसर्च, मार्केट कम्पटीशन, मार्केटिंग – ऑफलाइन एंड ऑनलाइन, क्लाइंट एंड कस्टमर रिटेंशन;
और सबसे बड़ी बात- ऐसे सही लोगों को जोड़ना और बनाए रखना, जो आपके विजन के साथ कनेक्ट हो पाएं। डेली बेसिस पर अपने-अपने एसाइंड वर्क को कंप्लीट कर पाएं। क्योंकि
“काम स्टार्ट करना जितना ही आसान होता है, उसे डेली करते रहना उससे कई गुना कठिन।“
और यह किसी भी काम पर इक्वली लागू होता है। जॉब हो, बिजनेस हो,चाहे कितना ही क्रिएटिव वर्क हो, या फिर एडवेंचर लवर्स के लिए मनचाहा एडवेंचरस काम हो। शुरुआत जनरली फेसिनेशन (fascination) से ही होती है, काम में मजा भी आता है; धीरे-धीरे जब काम आप अच्छा करने लग जाते हैं, तो रिटर्न भी अच्छा आने लग जाता है-मॉनेटरी भी, और एक्स्ट्रा-मॉनेटरी भी।
लेकिन इन सब के बावजूद सच यही है कि उस काम की हकीकत समय के साथ धीरे-धीरे बदलने लग जाती है। क्योंकि, “एक ही काम करना” इंसानी फितरत व मन की प्रकृति के खिलाफ है। इंसानी मन हर क्षण एक नयापन तलाशता है। जैसे, हर क्षण उसकी शरीर में लाखों सेल्स (cells) मरते हैं, बनते हैं; ठीक उसी प्रकार इंसान भी हर पल एक नया एडवेंचर चाहता है।
लेकिन अफ़सोस बाहरी भौतिक दुनिया में यह नयापन पाना इतना सरल नहीं है, क्योंकि हम इंसानों ने इसे भी बहुत सारे सामाजिक-धार्मिक-कानूनी व नैतिक नियमों से बांध रखा है। अनगिनत पैमाने बना रखे हैं, लोगों को जज करने के लिए, मानो सारे इंसान एक जैसे ही हो। उदाहरण के लिए, 10th के बाद ही 12th और 12th के बाद ही कॉलेज एजुकेशन, ऐसा सभी के लिए क्यों? यदि कोई एक्स्ट्रा मेरीटोरियस है, या अपनी मेहनत लगन से इस सिस्टम के पैटर्न से बाहर निकलने की क्षमता रखता है, तो उसे जल्दी-से-जल्दी नए आयामों को एक्सप्लोर करने का हक क्यों नहीं होना चाहिए? जरा सोच कर देखिए इस सिस्टम के बारे में, क्या यह एक जैसे सोच-गुण रखने वाले मशीन को तैयार करने वाला कारखाना नहीं है (यदि कुछेक को छोड़ दिया जाए तो)? क्या इस सिस्टम ने सभी के लिए एक जैसे ही नियम नहीं बना दिए हैं? कभी सोचा है, आप जो कुछ भी पढ़ते हैं अपने स्कूल में, अपने कॉलेज में; आप वो ही क्यूँ पढ़ते हैं? आखिर उस सिलेबस, उस टॉपिक, उस करिकुलम को आपके लिए डिज़ाइन किसने किया है? क्या आप ये सोच पा रहे हैं कि ये सारे फॉर्मल एजुकेशनल इंस्टीटूशन्स आपके विचारों को आयाम दे रहे होते हैं, इनमें इतनी क्षमता है कि ये चाहे तो आपसे इतिहास रचवा डाले, या चाहे तो आपको, आपकी पूरी पीढ़ी को बिना एहसास कराये ही गुलाम बनाये रखे।
इन सभी के जड़ तक जब आप जाएंगे, तो एक बहुत ही अलग पिक्चर नज़र आएगी, जिसे 98% लोग देख-समझ कर भी समझने से इनकार कर जाएंगे, क्योंकि आज के परिप्रेक्ष्य में, उनका दिमाग इस सच को स्वीकारने की इज़ाज़त ही नहीं देगा। सच यही है कि आज भी मानवता प्रकृति के उसी बेसिक लॉ पर चल रही है, जिसपर वो सदियों और कालों से चली आ रही है; और वो है- “द स्ट्रांगेस्ट विल सरवाइव”।
जो स्ट्रांग है, जो पावरफुल है; वो ही, जो कमजोर है, उन्हें चलाएगा। उन्हीं को खिलाएगा भी और उन्हीं का भक्षण भी करेगा। उन्हें दान भी करेगा, सब्सिडी भी देगा, फ्री राशन देगा, पानी देगा, बिजली देगा; और उनसे ही बली भी लेगा, इनकम टैक्स लेगा, सर्विस टैक्स लेगा, जीएसटी लेगा।
बड़े-बड़े हाई-फाई शब्दों, लॉज़, मोरल एंड एथिकल डेफिनिशंस के पीछे ये लोग सदियों से अपनी मंशाओं को छुपाते आ रहे हैं और कामयाब भी रहे हैं। इन 2% लोगों की पकड़ उन सभी मेजर सोशल एंड स्टेट्यूटरी इंस्टीट्यूशंस पर है, जो कि लोगों के विचारों का निर्माण करती हैं। और यह समझना इतना कठिन भी नहीं है कि इंसान अपने विचारों से इतर कुछ भी नहीं है। यह वही करता है, जैसे उसके विचार होते हैं।
और जरा सोच कर देखिए कि क्या हो यदि आपके भीतर विचारों को पनपने ही ना दिया जाए, क्या हो, यदि आपको तरीके से, प्लानिंग के साथ रोजमर्रा की जरूरतों में ही उलझा कर रख दिया जाये, क्या हो यदि आपको वह फर्टाइल भूमि दी ही ना जाए जहां आप स्वतंत्र रूप से वैचारिक चिंतन कर सकें।
ये सब-कुछ नया नहीं है। हालात कल भी ऐसे ही थे, आज भी ऐसे ही हैं। और ऐसा भी नहीं है कि ये केवल यहीं है, ये हर जगह है, हर देश में है, हर समाज में है। हर जगह यही 2 प्रतिशत लोग हैं, जिन पर उन 98% लोगों की “सो कॉल्ड फैब्रिकेटेड रिस्पांसिबिलिटी” है – उनका विकास करने की, उन्हें विकसित बनाने की।
खैर, आप सोचना शुरू कीजिए और खुद को रटे-रटाये, सीखे-सिखाए ज्ञान के बंधनों से मुक्त कीजिए। जीवन आपका है, इसे आसमान देना आपकी जिम्मेदारी भी है और आपका हक भी। इसलिए ज्ञान को महत्व दें, तर्क को महत्व दें।
धन्यवाद।